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मुंशी प्रेमचंद ः सेवा सदन


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पद्मसिंह का पहला विवाह उस समय हुआ था, जब वह कॉलेज में पढ़ते थे, और एम. ए. पास हुए, तो वह एक पुत्र के पिता थे। पर बालिका वधू शिशु-पालन का मर्म न जानती थी। बालक जन्म के समय तो हृष्ट-पुष्ट था, पर पीछे धीरे-धीरे क्षीण होने लगा था। यहां तक छठे महीने माता और शिशु दोनों ही चल बसे। पद्मसिंह ने निश्चय किया, अब विवाह न करूंगा। मगर वकालत पास करने पर उन्हें फिर वैवाहिक बंधन में फंसना पड़ा। सुभद्रा रानी वधू बनकर आई। इसे आज सात वर्ष हो गए।

पहले दो-तीन साल तक तो पद्मसिंह को संतान का ध्यान ही नहीं हुआ। यदि भामा इसकी चर्चा करती, तो वह टाल जाते। कहते, मुझे संतान की इच्छा नहीं। मुझसे यह बोझ न संभलेगा। अभी तक संतान की आशा थी, इसीलिए अधीर न होते थे।

लेकिन जब चौथा साल भी यों ही कट गया, तो उन्हें कुछ निराशा होने लगी। मन में चिंता हुई क्या सचमुच मैं निःसंतान ही रहूंगा। ज्यों-ज्यों दिन गुजरते थे, यह चिंता बढ़ती जाती थी। अब उन्हें अपना जीवन कुछ शून्य-सा मालूम होने लगा। सुभद्रा से वह प्रेम न रहा, सुभद्रा ने इसे ताड़ लिया। उसे दुख तो हुआ, पर इसे अपने कर्मों का फल समझकर उसने संतोष किया।

पद्मसिंह अपने को बहुत समझाते कि तुम्हें संतान लेकर क्या करना है? जन्म से लेकर पच्चीस वर्ष की आयु तक उसे जिलाओ, खिलाओ, पढ़ाओ तिस पर भी यह शंका लगी ही रहती है कि वह किसी ढंग की होगी भी या नहीं। लड़का मर गया, तो उसके नाम को लेकर रोओ। जो कहीं हम मर गए, तो उसकी जिंदगी नष्ट हो गई। हमें यह सुख नहीं चाहिए। लेकिन इन विचारों से मन को शांति न होती। वह सुभद्रा से अपने भावों को छिपाने की चेष्टा करते थे और उसे निर्दोष समझकर उसके साथ पूर्ववत् प्रेम करना चाहते थे, पर जब हृदय पर नैराश्य का अंधकार छाया हो, तो मुख पर प्रकाश कहां से आए? साधारण बुद्धि का मनुष्य भी कह सकता था कि स्त्री-पुरुष के बीच में कुछ-न-कुछ अंतर है। कुशल यही थी कि सुभद्रा की ओर से पतिप्रेम और सेवा में कुछ कमी न थी, दिनोंदिन उसमें और कोमलता आती जाती थी, वह अपने प्रेमानुराग से संतान-लालसा को दबाना चाहती थी, पर इस दुस्तर कार्य में वह उस वैद्य से अधिक सफल न होती थी, जो रोगी को गीतों से अच्छा करना चाहता हो। गृहस्थी की छोटी-छोटी बातों पर, जो अनुचित होने पर भी पति को ग्राह्य हो जाया करती हैं, उसे सदैव दबना पड़ता था और जब से सदन यहां रहने लगा था, कितनी ही बार उसके पीछे तिरस्कृत होना पड़ा। स्त्री अपने पति के बर्छों का घाव सह सकती है, पर किसी दूसरे के पीछे उसकी तीव्र दृष्टि भी उसे असह्य हो जाती है। सदन सुभद्रा की आंखों में कांटे की तरह गड़ता था। अंत को कल वह उबल पड़ी। गर्मी सख्त थी। मिसिराइन किसी कारण से न आई थी, सुभद्रा को भोजन बनाना पड़ा। उसने पद्मसिंह के लिए फुल्कियां पकाई। लेकिन गर्मी से व्याकुल थी, इसलिए सदन के लिए मोटी-मोटी रोटियां बना दी। पद्मसिंह भोजन करने बैठे, सदन की थाली में रोटियां देखीं, तो मारे क्रोध के अपनी फुल्कियां उसकी थाली में रख दीं। और उसकी रोटियां अपनी थाली में डाल लीं। सुभद्रा ने जलकर कुछ कटु वाक्य कहे, पद्मसिंह ने वैसा ही उत्तर दिया। फिर प्रत्युत्तर की नौबत आई। यहां तक कि वह झल्लाकर चौके से उठ गए। सुभद्रा ने मनावन नहीं किया। उसने रसोई उठा दी और जाकर लेट रही, पर अभी तक दो में से एक का भी क्रोध शांत नहीं हुआ। मिसिराइन ने आज खाना बनाया, पर न पद्मसिंह ने खाया, न सुभद्रा ने। सदन बारी-बारी से दोनों की खुशामद कर रहा था, पर एक तरफ से यह उत्तर पाता, अभी भूख नहीं है और दूसरी तरफ से जवाब मिलता खा लूंगी, यह थोड़े ही छूटेगा। यही छूट जाता, तो काहे किसी की धौंस सहनी पड़ती। आश्चर्य था कि सदन से सुभद्रा हंस-हंसकर बातें करती थी और वही इस कलह का मूल कारण था। मृगा खूब जानता है कि टट्टी की आड़ से आने वाला तीर वास्तव में शिकारी की मांस-तृष्णा या मृगया प्रेम है।

तीसरा पहर हो गया था, पद्मसिंह सोकर उठे थे और जम्हाइयां ले रहे थे। उनका हृदय सुभद्रा के प्रति अनुदार, अप्रिय, दग्धकारी भावों से मलिन हो रहा था। सुभद्रा के अतिरिक्त यह प्राणि-मात्र से सहानुभूति करने को तैयार बैठे थे। इसी समय डाकिए ने एक बैरंग चिट्ठी लाकर उन्हें दी। उन्होंने डाकिए को इस अप्रसन्नता की दृष्टि से देखा, मानों बैरंग चिट्ठी लाकर उसने कोई अपराध किया है। पहले तो उन्हें इच्छा हुई कि इसे लौटा दें, किसी दरिद्र मुवक्किल ने इसमें अपनी विपत्ति गाई होगी, लेकिन कुछ सोचकर चिट्ठी ले ली और खोलकर पढ़ने लगे। यह शान्ता का पत्र था। उसे एक बार पढ़कर मेज पर रख दिया। एक क्षण के बाद फिर उठाकर पढ़ा और तब कमरे में टहलने लगे। इस समय यदि मदनसिंह वहां होते, तो वह पत्र उन्हें दिखाते और कहते, यह आपके कुल-मर्यादाभिमान का– आपके लोक-निंदा, भय का फल है। आपने एक मनुष्य का प्राणाघात किया, उसकी हत्या आपके सिर पड़ेगी। पद्यसिंह को मुकदमें की बात पढ़कर एक प्रकार का आनंद-सा हुआ। बहुत अच्छा हो कि यह मुकदमा दायर हो और उनकी कुलीनता का गर्व धूल में मिल जाए। उमानाथ की डिग्री अवश्य होगी और तब भाई साहब को ज्ञात होता कि कुलीनता कितनी मंहगी वस्तु है। हाय! उस अबला कन्या के हृदय पर क्या बीत रही होगी? पद्मसिंह ने फिर उस पत्र को पढ़ा। उन्हें उसमें अपने प्रति श्रद्धा का एक स्रोत-सा बहता हुआ मालूम हुआ। इसने उनकी न्यायप्रियता को उत्तेजित-सा कर दिया। ‘धर्मपिता’ शब्द ने उन्हें वशीभूत कर दिया। उसने उनके हृदय में वात्सल्य के तार का स्वर कंपित कर दिया। वह कपड़े पहनकर विट्ठलदास के मकान पर जा पहुंचे, वहां मालूम हुआ कि वे कुंवर अनिरुद्धसिंह के यहां गए हुए हैं। तुरंत बाइसिकल उधर फेर दी। वह शान्ता के विषय में इसी समय कुछ-न-कुछ निश्चय कर लेना चाहते थे। उन्हें भय था कि विलंब होने से यह जोश ठंडा न पड़ जाए।

कुंवर साहब के यहां ग्वालियर से एक जलतरंग बजाने वाला आया हुआ था। उसी का गाना सुनने के लिए आज उन्होंने मित्रों को निमंत्रित किया था। पद्मसिंह वहां पहुंचे तो विट्ठलदास और प्रोफेसर रमेशदत्त में उच्च स्वर में विवाद हो रहा था और कुंवर साहब, पंडित प्रभाकर राव तथा सैयद तेगअली बैठे हुए इस लड़ाई का तमाशा देख रहे थे।

शर्माजी को देखते ही कुंवर साहब ने उनका स्वागत किया। बोले– आइए, आइए, देखिए यहां घोर संग्राम हो रहा है। किसी तरह इन्हें अलग कीजिए, नहीं तो ये लड़ते-लड़ते मर जाएंगे।

इतने में प्रोफेसर रमेशदत्त बोले– थियासोफिस्ट होना कोई गाली नहीं है। मैं थियासोफिस्त हूं और इसे सारा शहर जानता है। हमारे ही समाज के उद्योग का फल है कि आज अमेरिका, जर्मनी, रूस इत्यादि देशों में आपको राम और कृष्ण के भक्त और गीता, उपनिषद् आदि सद्ग्रंथों के प्रेमी दिखाई देने लगे हैं। हमारे समाज ने हिन्दू जाति का गौरव बढ़ा दिया है, उसके महत्त्व को प्रसारित कर दिया है और उसे उस उच्चासन पर बिठा दिया है, जिसे वह अपनी अकर्मण्यता के कारण कई शताब्दियों से छोड़ बैठी थी, यह हमारी परम कृतघ्नता होगी, अगर हम उन लोगों का यश न स्वीकार करें, जिन्होंने अपने दीपक से हमारे अंधकार को दूर करके हमें वे रत्न दिखा दिए हैं, जिन्हें देखने का हममें सामर्थ्य न था। यह दीपक ब्लाबेट्स्की का हो, या आल्क्ट का या किसी अन्य पुरुष का, हमें इससे कोई प्रयोजन नहीं। जिसने हमारा अंधकार मिटाया हो उसका अनुगृहीत होना हमारा कर्त्तव्य है। अगर आप इसे गुलामी कहते हैं, तो यह आपका अन्याय है।

विट्ठलदास ने इस कथन को ऐसे उपेक्ष्य भाव से सुना, मानो वह कोई निरर्थक बकवाद है और बोले– इसी का नाम गुलामी है, बल्कि गुलाम तो एक प्रकार से स्वतंत्र होता है, उसका अधिकार शरीर पर होता है, आत्मा पर नहीं। आप लोगों ने तो अपनी आत्मा को ही बेच दिया है। आपकी अंग्रेजी शिक्षा ने आपको ऐसा पद्दलित किया है कि जब तक यूरोप का कोई विद्वान किसी विषय के गुण-दोष प्रकट न करे, तब तक आप उस विषय की ओर से उदासीन रहते हैं। आप उपनिषदों का आदर इसलिए नहीं करते कि वह स्वयं आदरणीय है, बल्कि इसलिए करते हैं कि ब्लाबेट्स्की और मैक्समूलर ने उनका आदर किया है आपमें अपनी बुद्धि से काम लेने की शक्ति का लोप हो गया है। अभी तक आप तांत्रिक विद्या की बात भी न पूछते थे। अब जो यूरोपीय विद्वानों ने उसका रहस्य खोलना शुरू किया, तो आपको अब तंत्रों में गुण दिखाई देते हैं। यह मानसिक गुलामी उस भौतिक गुलामी से कहीं गई-गुजरी है। आप उपनिषदों को अंग्रेजी में पढ़ते हैं, गीता को जर्मन में। अर्जुन को अर्जुना, कृष्ण को कृशना कहकर अपने स्वभाषा-ज्ञान का परिचय देते हैं। आपने इसी मानसिक दासत्व के कारण उस क्षेत्र में अपनी पराजय स्वीकार कर ली, जहां हम अपने पूर्वजों की प्रतिभा और प्रचंडता से चिरकाल तक अपनी विजय-पताका फहरा सकते थे।

रमेशदत्त इसका कुछ उत्तर देना ही चाहते थे कि कुंवर साहब बोले उठे– मित्रो! अब मुझसे बिना बोले नहीं रहा जाता। लाला साहब, आप अपने इस ‘गुलामी’ शब्द को वापस लीजिए।

विट्ठलदास– क्यों वापस लूं?

कुंवरसाहब– आपको इसके प्रयोग करने का अधिकार नहीं है।

विट्ठलदास– मैं आपका आशय नहीं समझा।

कुंवरसाहब– मेरा आशय यह है कि हममें कोई भी दूसरों को गुलाम कहने का अधिकार नहीं रखता! अंधों के नगर में कौन किसको अंधा कहेगा? हम सब-के-सब राजा हों या रंक, गुलाम हैं। हम अगर अपढ़, निर्धन, गंवार हैं, तो थोड़े गुलाम हैं। हम अपने राम का नाम लेते हैं, अपनी गाय पालते हैं और अपनी गंगा में नहाते हैं, और हम यदि विद्वान, उन्नत, ऐश्वर्यवान हैं, तो बहुत गुलाम हैं, जो विदेशी भाषा बोलते हैं, कुत्ते पालते हैं और अपने देशवासियों को नीच समझते हैं। सारी जाति इन्हीं दो भागों में विभक्त है। इसलिए कोई किसी को गुलाम नहीं कह सकता। गुलामी के मानसिक, आत्मिक, शारीरिक आदि विभाग करना भ्रांतिकारक है। गुलामी केवल आत्मिक होती है, और दशाएं इसी के अंतर्गत हैं। मोटर, बंगले, पोलो और प्यानों यह एक बेड़ी के तुल्य हैं, जिसने इन बेड़ियों को नहीं पहना, उसी को सच्ची स्वाधीनता का आनंद प्राप्त हो सकता है, और आप जानते हैं, वे कौन लोग हैं? वे हमारे दीन कृषक है, जो अपने पसीने की कमाई खाते हैं, अपने जातीय भेष, भाषा और भाव का आदर करते हैं और किसी के सामने सिर नहीं झुकाते है।

प्रभाकर राव ने मुस्कराकर कहा– आपको कृषक बन जाना चाहिए।

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